अमोढ़ा सूर्यवंश राज्य

जालिम सिंह का जन्म 1723 में अमरोहा गाँव में हुआ था, जो अब उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में स्थित है। वह सूर्यवंशी राजपूत कबीले से ताल्लुक रखते थे, जो भारत के सबसे शक्तिशाली राजपूत वंशों में से एक है। जालिम सिंह के पिता, राजा छत्र सिंह, अमरोहा के शासक थे।

ज़ालिम सिंह ने छोटी उम्र से ही सैन्य शिक्षा प्राप्त की। वह एक कुशल घुड़सवार और तलवारबाज था। उन्होंने तीरंदाजी और निशानेबाजी में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। जालिम सिंह तेजी से अमोढ़ा सेना के रैंकों के माध्यम से ऊपर उठे। वह कम उम्र में सेनापति बन गए।

1764 में, जालिम सिंह ने बक्सर की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लड़ाई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मुगल साम्राज्य के बीच लड़ी गई थी। युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई। जालिम सिंह की सेना ने मुगल सेना को हराने में मदद की।

बस्ती में अमोढ़ा सूर्यवंश राज्य के संस्थापक राजा छत्र सिंह थे। वह राजा जालिम सिंह के पिता थे, जो भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली राजपूत शासकों में से एक थे।

छत्र सिंह का जन्म 1685 में अमरोहा गाँव में हुआ था, जो अब उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में स्थित है। वह सूर्यवंशी राजपूत कबीले से ताल्लुक रखते थे, जो भारत के सबसे शक्तिशाली राजपूत वंशों में से एक है। छत्र सिंह के पिता राजा उदय प्रताप सिंह अमरोहा के शासक थे।

छत्र सिंह ने छोटी उम्र से ही सैन्य शिक्षा प्राप्त की। वह एक कुशल घुड़सवार और तलवारबाज था। उन्होंने तीरंदाजी और निशानेबाजी में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। छत्र सिंह तेजी से अमोढ़ा सेना के रैंकों के माध्यम से उठे। वह कम उम्र में सेनापति बन गए।
पुराने समय में अमोढ़ा केवल गाँव नहीं था बल्कि एक एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय राज था जिसमें काफ़ी सारे गाँव आते थे।[3] अमोढ़ा चौदहवीं सदी में कायस्थ वंशीय राजाओं द्वारा शासित था। बाद में यहाँ सूर्यवंशी लोगों का शासन हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में यहाँ एक उल्लेखनीय लड़ाई हुई जिसमें ब्रिटिश हुकूमत की सेनाओं को अमोढ़ा में घेर लिया गया था और लगभग 400 से 500 लोग मारे गये।[4] डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा के शुरुआत में अपने पूर्वजों के बारे में लिखा है:

संयुक्त प्रांत में कोई जगह अमोढ़ा नाम की है। सुनते हैं कि वहाँ कायस्थों की अच्छी बस्ती है। बहुत दिन बीते वहाँ से एक परिवार निकलकर पूरब चला और बलिया में जाकर बसा। एक बड़े जमाने तक बलिया में रहने के बाद उस परिवार की एक शाखा उत्तर की ओर गई और आजकल के जिला सारन (बिहार) के जीरादेई गाँव में जाकर रहने लगी। दूसरी शाखा गया में जाकर बस गई। जीरादेई–शाखा के कुछ लोग थोड़ी ही दूर पर एक दूसरे गाँव में भी जाकर बस गए। जीरादेईवाला परिवार ही मेरे पूर्वजों का परिवार है। शायद जीरादेई में आनेवाले मेरे पूर्वज मुझसे सातवी या आठवीं पीढ़ी में ऊपर थे। जो लोग जीरादेई में आए थे, वे गरीब थे और रोजगार की खोज में ही इधर आ गए थे। चूँकि उस गाँव में कोई शिक्षित नहीं था और उन दिनों भी कायस्थ तो शिक्षित हुआ ही करते थे, इसलिए गाँव के लोगों ने उनको वहाँ रख लिया।
1723 में, छत्र सिंह ने अपने पिता को अमरोहा के शासक के रूप में उत्तराधिकारी बनाया। उन्होंने 30 वर्षों तक शासन किया और उनके समय के दौरान, अमोढ़ा भारत में सबसे शक्तिशाली रियासतों में से एक बन गया। छत्र सिंह एक बुद्धिमान और न्यायप्रिय शासक थे। वह एक कुशल राजनयिक भी थे, और वे मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में सक्षम थे।

1753 में छत्र सिंहअमोढ़ा सूर्यवंश राज्यजालिम सिंह ने ले लिया। ज़ालिम सिंह एक शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक थे, और उन्होंने अमोढ़ा के क्षेत्र का विस्तार किया। उन्होंने 1764 में बक्सर की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे मुगल साम्राज्य का पतन हुआ।

अमोढ़ा सूर्यवंश राज्य 1859 में समाप्त हो गया, जब इसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा कब्जा कर लिया गया था। हालाँकि, छत्र सिंह के वंशज अभी भी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में रहते हैं, और वे अपने राजपूत पूर्वजों के मूल्यों को कायम रखते हैं।
पाल एक उपनाम है, वे कत्यूरी शाखा के विशुद्ध सूर्यवंशी हैं। महादेव इनके आराध्य हैं।

उत्तर प्रदेश में बसे पाल और सूर्यवंशी उपनाम वाले क्षत्रिय इसी कत्यूरी वंश की शाखा हैं और कुमाऊँ-गढ़वाल से आ कर उ•प्र• में बसे।

बस्ती जिले के अमोढ़ा राज और महसों राज एवं बाराबंकी का हड़हा राज इसी वंश के हैं। पाल सूर्यवंशियों की प्रथम स्वतंत्र संग्राम में अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनकी संख्या शेष वंशों की तुलना में बहुत कम है. उत्तर प्रदेश में इन्हें क्षत्रियों में सबसे उच्च वर्ण का माना जाता है ! कुछ कथायंे कहती हैं कि प्रत्येक राजपूत वंश अवध से सम्बद्ध थी। इसी प्रकार महुली महसों की भांति अमोढ़ा के कायस्थ को एक दूसरे सूर्यवंशी द्वारा अलग निकाल दिया गया था। इनके मुखिया कान्हदेव थे जो उस क्षेत्र के कायस्थ जमींदार को भगाकर स्वयं को स्थापित किये थे। इसमें उन्हें आंशिक सफलता मिली थी। उनका पुत्र कंशनाराण पूर्वी आधा भूभाग कायस्थ राजा से प्राप्त कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी ने बाकी बचे हुए भाग को जीतकर पूरा अमोढ़ा को अपने अधीन किया था। इस्लाम के आने पर कायस्थ राजकीय सहायक के रूप में आशावान हुए। मुगलकाल में वह पुनः स्थापित हुए। बस्ती मण्डल के शेष भाग में राजपूत वंश का ही बोलवाला थां अपवाद स्वरूप मगहरं मुस्लिम शासक के अधीन था। अमोढ़ा राज्य एक लम्बे समय तक अवध का अन्तर्भुक्त रहा है। गोरखपुर सरकार के अधीन यह बहुत बाद में आया था। इस कारण अंग्रेजों को यहां काफी मशक्कत उठानी पड़ी थी।

अमोढ़ाखास या अमोढ़ा रियासत:-यह जिला मुख्यालय से 41 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका पुराना नाम अमोढ़ा है। यह पुराने दिनों में राजा जालिम सिंह का एक प्रांत (राज्य) था। इसके अलावा राजा जालिम सिंह के महल यहाँ हैं। महल की पुरानी दीवार अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किये गए गोली के निशान के साथ अभी भी वहाँ है। इसके अलावा एक प्रसिद्ध मंदिर (रामरेखा मंदिर) यहाँ है। 1707 ई. औरंगजेब की मृत्यु के बाद सम्राट बहादुरशाह ने चीन कुलिच खान को अवध का सूवेदार और गोरखपुर का फौजदार नियुक्त किया, जिस पद को उसने 6 सप्ताह के बाद त्यागपत्र दे दिया था। एक भद्र पुरूष मुनीम खान के संकेत पर चीन कुलिच खान ने अपना त्यागपत्र वापस ले लिया था। लगभग 1710 ई. में सम्राट द्वारा पक्ष न लेने से वह पुनः उस पद से त्यागपत्र दे दिया। कार्यमुक्त होकर उसने अपने जीवन का शेष समय दिल्ली में बिताया। उसके त्यागपत्र से स्थानीय राजाओं को अपने-अपने क्षेत्र में धाक जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। प्रत्येक राजा व्यवहारिक रूप से अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हो गया। वे जमीन देने के लिए स्वतंत्र हो गये तथा सामान जमा करने से तथा बड़ी सेना के भरण पोषण से मुक्त होकर सेना को अपनी इच्छानुसार अपने पड़ोसियों से युद्ध में लगा दिये। उनकी स्वतंत्र स्थिति वाइन के “सेटेलमेट रिपोटर्” में वड़ी प्रमुखता से प्रकाशित कराई गई। जिसके अनुसार वे जमीन को विचैलिये की तरह या प्रतिनिधि की तरह नहीं लिए थे, बल्कि मुख्य प्राधिकारी की तरह उपभोग कर रहे थे। उक्त परिस्थिति का लाभ उठाकर अमोढ़ा के सूर्यवंशी ने अपना विस्तार किया था। जब अवध के नबाब सआदत अली खां अंग्रेजों को कर अदायगी न कर पाये तो नबाबी कुशासन का अन्त नवम्बर 1801 ई. के बाद हुआ था। उस समय इस मंडल का बहुत बड़ा भाग अंग्रेजों के अधीन आया तथा लगानमाफी का आदेश पारित हो गया। नबाब ने सत्ता अंग्रेजों को सौंपकर अपने दायित्वों से मुक्त हो गया था। अभी तक अमोढ़ा को छोड़ बस्ती का सारा क्षेत्र गोरखपुर सरकार के नाम से नबाब के अधीन था ,परन्तु 1801 ई. में अमोढ़ा सहित पूरा बस्ती मण्डल गोरखपुर जिले के अन्तर्गत समाहित हो गया था। स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी सह अपराजिता के कारण रानी अमोढ़ा को उनकी गद्दी से बेदखल कर दिया गया तथा उन्हें अपनी सम्पत्ति गवानी पड़ी थी ।

स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास:-अमोढ़ा कस्बे का स्वतंत्रता संग्राम से पुराना रिश्ता है। यहां के अंतिम राजा जंगबहादुर सिंह की मृत्यु 1855 ई. में हुई थी। राजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्हें नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया तथा अंतिम सांस तक जंग जारी रखी। मजबूर हो अंग्रेज बैरंग वापस लौट गए थे, तभी से यह गांव स्टेट के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन तमाम जन प्रतिनिधि व प्रशासनिक अधिकारी राजा जालिम सिंह के कोट द्वार तक पहुंचे तथा उन्हें श्रद्धांजलि देकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली। जिसका नतीजा रहा है कि भारी-भरकम आबादी वाला यह गांव बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रह गया। छावनी कस्बे से राम जानकी मार्ग पर महज तीन किमी की दूरी पर स्थित यह कस्बा आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। यहां पर प्राथमिक शिक्षा को छोड़ दिया जाय तो न तो उच्च शिक्षा के साधन हैं और न ही चिकित्सा जैसी कोई मूलभूत सुविधा। जिसको देख कर लोग अपने मन को संतोष प्रदान कर सकें कि वे गांव या कस्बे में रहते हैं जिसका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।

सूर्यराजवंश का इतिहासः-अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। 71 साल की आयु में वह निसंतान दिवंगत हुए। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्ध कला में प्रवीण थीं। वह आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। परिणाम स्वरुप अन्हें अपनी उपाधि व राज्य से हाथ धोना पड़ा था। यह राज्य बस्ती की रानी को मिला था। जगतकुवरि की निःसन्तान मृत्यु हुई थी। इसी प्रकार इस राज की वरिष्ठ शाखा भी अवसान को प्राप्त हुई थी। सूर्यवंशी अमोढ़ा में अभी भी अपनी सम्पत्ति बनाये रखे हैं। अनका बहुत वड़ी सम्पत्तियां जीतीपुर मे है ,जो सदा फूल फल रहे हैं। अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं।

बस्ती जिले के अमोढ़ा राज और महसों राज एवं बाराबंकी का हड़हा राज इसी वंश के हैं। पाल सूर्यवंशियों की प्रथम स्वतंत्र संग्राम में अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनकी संख्या शेष वंशों की तुलना में बहुत कम है. उत्तर प्रदेश में इन्हें क्षत्रियों में सबसे उच्च वर्ण का माना जाता है ! कुछ कथायंे कहती हैं कि प्रत्येक राजपूत वंश अवध से सम्बद्ध थी। इसी प्रकार महुली महसों की भांति अमोढ़ा के कायस्थ को एक दूसरे सूर्यवंशी द्वारा अलग निकाल दिया गया था। इनके मुखिया कान्हदेव थे जो उस क्षेत्र के कायस्थ जमींदार को भगाकर स्वयं को स्थापित किये थे। इसमें उन्हें आंशिक सफलता मिली थी। उनका पुत्र कंशनाराण singh the

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